
‘जिधर से गुज़रते हैं, छोड़ते हैं नेकियों के निशां,
उनका घूमना भी हमारी तरह, बेअसर नहीं रहता।’
नित्यप्रति के जीवन में कुछ मिलते हैं, कुछेक बिछुड़ जाते हैं परन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जो भुलाए नहीं भूलते अर्थात् अपनी अमिट छाप मानस पटल पर सदैव के लिए अंकित कर जाते हैं। मेरे हाथ में प्रो. दुग्गल जी की मध्य लेखों की नवीन ऐसी पुस्तक है जो उनके व्यक्तित्व पर बखूबी रौशनी डालती हैं । साधारणतय लेखक अपने गुणों या उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करता है परन्तु अपनी कमियों छुपा जाता है। इसके विपरीत यहां मामला इसके विपरीत है, लेखक पुस्तक में अपनी कमियों पर प्रकाश डालता है पर खूबियां ओझल रह जाती हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि के चलते उन शरारतों का भी वर्णन है जो दोस्तों की टोली करती हैं। लेखक ने तो बाप के दोस्त अध्यापक से इसलिए ही मार खाई कि घर वालों ने शिकायत की थी कि लड़का शरारतें बहुत करता है। खैर, ये तो सभी बच्चों के बचपन की कहानियां होती हैं। स्कूल की पढ़ाई के बाद दूसरों की तरह लेखक ने भी कयी पापड़ बेले। चुनाव भी लड़ा तथा ‘दर्पण मालवा’ पाक्षिक पत्र भी निकाला। अच्छी बात यह रही कि उन्होंने पत्रकारिता पर पीएचडी भी कर ली। पक्की नौकरी उन्हें जालंधर के यूनिवर्सिटी कालेज में मिली, इस.तरह ओएसडी बनने तक जलंधरिये बने अपने गुणों से जालंधर को महका रहे हैं।
एक बात मैं आपसे पहले ही सांझी कर लूं कि खास होते हुए भी सादगी प्रतिमूर्ती डा. दुग्गल को प्रशंसा कतयी पसंद नहीं। दूसरे का सम्मान कर अपना सम्मान बढ़ाने वाली यह शख्शीयत उच्चकोटि के लेखक भी है, यह मुझे उनकी समाचार पत्रों में लिखे मिडल लेखों का संकलन है, पढ़कर पता चली। ‘मेरी उड़ाण-अमरगढ़ तों जलंधर’ पढ़कर मुझे उनका जालंधर तक का सफर था। जालंधर आकर वे समाचार-पत्रों के कार्यालयों में जाते तथा वहां सब से मिलते।
मुझे भी वे समाचार पत्र में नौकरी के दौरान मिले, फिर तो उनके व्यक्तित्व एवम् विचारों की एकरूपता तथा पड़ोसी होने के कारण हम मिलने लगे। मैं प्रिंटिग का काम भी करता था। इन्होंने मुझसे काम करवाया, मैंने जितना मेहनताना मांगा, उन्होंने अधिक दिया। मैंने कहा कि आप कुछ रख लें तो जो उन्होंने उत्तर दिया उससे मुझे साबित हो गया ऐसे महानुभाव समाज में क्यों नहीं…। वे कहने लगे कि ये कोठी मेरी है, साथ वाला प्लाट भी मेरा है…लुधियाना में दुकानें हैं…गांव में जायदाद है…कार है…वेतन भी काफी है..आदमी को और कितने पैसे की ज़रूरत होगी। मैंने इससे पहले भी और बाद में ऐसे तृप्त सज्जन नहीं देखे। सुना तो मैंने यह भी कि वे विद्यार्थियों की मदद तक कर.देते हैं। अपने कार्य के प्रति समर्पण भावना के चलते कयी सभा सोसायटियों से भी उनका संबंध है। साहित्य सम्मेलनों में अध्क्षता के लिए उन्हें अधिमान दिया जाता है।
इतना सब होने के वावजूद अभिमान उनके पास न पटक सका है। वे कहीं सड़क पर आपको सबसे मिलते नज़र आ जाएंगे। ओएसडी के पद पर आसीन डा. दुग्गल का कार्यकाल दिसम्बर में पूरा होगा।
उनकी पुस्तक मोटे टाईप में है एवम् उन्हें पंजाबी में पत्र लिखने वालों को वे मुफ्त भेजते हैं यह उनके पंजाबी के प्रति स्नेह को दर्शाता है। उनकी उड़ान उन्हें कहीं भी ले जाए या जालंधरिया ही बनाए रखे, उनकी मानवीय गुणों सुगंधी इसी तरह समाज को महकाती रहेगी, ऐसी आशा है क्योंकि-
‘वोह जहां भी जाएगा, रौशनी बांटेगा,
दिये का कोई अपना मुकां नहीं होता।’
सर्वोत्मुखी प्रतिभाः प्रो. (डा.) कमलेश सिंह दुग्गल, जानें उनके जीवन की खास बातें –
An outstanding talent: Prof. (Dr.) kamlesh singh duggal, know the special things about his life